साधारण बालक नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद बनने का सफर

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प्रतिभा जिसकी घरोहर होती है, आदर्श जिसके अनुगामी होते
हैं, ज्ञान जिसका सहोदर होता है, विवेक और संयम जिसकी
पूजा करते हैं, वह विनयशील व्यक्तित्व सब-कुछ होकर भी
संत होता है। भारत में युगपुरफ़ष स्वामी विवेकानंद इसी रूप
में अवतरित हुए। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व समस्त विश्व के
लिए अनुकरणीय बन गया।
स्वामी विवेकानंद में वह सभी गुण समाहित थे, जो उन्हें महान्‌
से महानतम बनाते हुए, उन्हें नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद के रूप में अभिनंदित कर सके।
स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। ॥2
जनवरी, सन्‌ 863 को उनका जन्म कलकत्ता के सभ्य और
सुसंस्कृत क्षत्रिय परिवार में हुआ। उनके पितामह बहुत अधिक
घनाढ्य व्यक्ति थे, कितु सांसारिक वस्तुओं से मोह त्यागकर
वह 25 वर्ष की आयु में ही संन्यासी हो गए। नरेंद्रनाथ के
पिता कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील थे। इस व्यवसाय में उन्हें
सुबह से शाम तक अत्यधिक व्यस्त रहना पड़ता था। उनकी
माताजी भक्तिमय जीवन जीनेवाली, उच्चचरित्र, उदार, सुशील,कर्तव्यनिष्ठ और वीरत्वपूर्ण संस्कारों की सजीव प्रतिमा थीं।परिवार के इस वातावरण का नरेंद्रनाथ के मन और मस्तिष्क पर प्रभाव बना रहना स्वाभाविक था।

 प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान्‌ रोमां रोला ने स्वामी विवेकानंद के
बाल्यकाल और युवावस्था की गतिविधियों का चित्रण विस्तार
से इन पंक्तियों में किया है: नरेंद्र का शैशव और बाल्यकाल
यूरोपीय काल के कला-प्रेमी राजकुमार का-सा रहा। उनकी
प्रतिभा बहुमुखी थी और सभी दिशाओं में उन्होंने उसका विकास
किया। उनका रूप सिह-शावक का-सा प्रभावशाली और मृग-छौने-सा कोमल था। बलिष्ठ सुगठित शरीर कसरतों से और
भी मेज गया था-कुश्ती, घोड़े की सवारी, तैरने और नाव खेने
का उन्हें शौक था। युवकों के वह नेता और फैशन के नियंता
थे। नृत्योत्सवों में वह कलापूर्ण नृत्य करते थे। उनका कंठ बड़ा
सुरीला था, जिस पर बाद में रामकृष्ण भी मुग्ध हुए। उन्होंने चार-
पाँच वर्ष तक हिंदू और मुसलमान संगीताचार्यों के साथ गायन
और संगीत का अभ्यास किया था। वह स्वयं गीत लिखते भी थे
और उन्होंने भारतीय संगीत के दर्शन और विज्ञान पर एक संदर्भ-
ग्रंथ भी प्रकाशित किया था। संगीत उनके लिए सदैव उस मंदिर
का द्वार था, जिससे होकर ही परमतत्त्व की ओर बढ़ा जा सकता
है। कॉलिज में उनकी प्रखर मेघा ने विज्ञान, ज्यातिष, गणित,
दर्शन, भारतीय तथा यूरोपीय भाषाओं पर समान अधिकार करके
सबको चकित कर दिया। उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी काव्य पढ़ा,
ग्रीगय और गिबन के इतिहास-ग्रंथों का मनन किया, फ्रांसीसी
क्रांति और नेपोलियन से वह प्रभावित हुए। अनेक भारतीय
बालकों की भाँति उन्होंने बचपन से ही एकाग्र चिंतन का अभ्यास
किया। रात को वह वेदांत और 'द इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट'
का अध्ययन किया करते। दार्शनिक विमर्श से उन्हें प्रेम था।
चिंतन, आलोचन, विवेचन की इस प्रवृत्ति के कारण ही अनंतर
उनका नाम विवेकानंद पड़ा। उन्होंने सौंदर्य में यूनानी (हेलेनिक)
आदर्श का और भारतीय जर्मन-चिंतन का समन्वय करने का
प्रयत्न किया। पर उनके विश्ववाद के, जो जीवन के सभी रूपों पर
अभ्यंतर की सत्ता की प्रतिष्ठा में उन्हें लेयोना्दों और आल्बर्ती के
समकक्ष ले जाता था, शिखर पर एक घर्मवान और परम पवित्र
आत्मा का मुकुट भी शोभित था। इस सुंदर, स्वतंत्र और तेजस्वी
युवक को संसार के सब सुख उपलभ्य थे पर उसने स्वयं अपने
पर कड़ा अनुशासन रखा था। बिना किसी संप्रदाय से बंधे अथवा
पद्धति को अपनाए भी उसे अनुभव रहा था कि शरीर और मन
की पवित्रता एक आध्यात्मिक शक्ति है, जिसकी आग जीवन के
प्रत्येक अंग में बस सकती है, कितु थोड़े से दूषण से बुझ जाती
है। साथ ही नरेंद्र पर उसकी भव्य नियति की छाया भी थी।
उसकी दिशा को ठीक-ठीक न पहचानते हुए भी नरेंद्र में उसके
योग्य होने की और उसे निष्पन्न करने की लालसा थी।'
उन्‍नीसवीं सदी का युग बंगाल तथा सारे भारत के पुनरफ़त्थान
का युग था। बहुत दिनों की गुलामी के कारण भारतवासियों के
जीवन में जड़ता, स्वार्थपरता, अशिक्षा तथा जातिभेद के अति-
प्रचार, आपस में एक-दूसरे के लिए घृणा तथा अलगाव आदि ने
भारतीय समाज को खोखला कर दिया था।
श्री केशवर्चंद्र सेन के प्रभाव से वह बंगाल के युवा ब्राह्म आंदोलन
में सम्मिलित हो गए। इसका उद्देश्य था-जाति-धर्म के भेदभाव
के बिना भारतीय जनता की शिक्षा और एकता। ये ब्राह्म सुधारक
ईसाई मिशनरियों से भी अधिक उग्रता के साथ सनातन हिंदू-धर्म
पर चोट कर रहे थे। नरेंद्र ने स्वतंत्र और सप्रमाण बुद्धि प्राप्त की
थी। उन्होंने शीघ्र ही यह अनुभव कर लिया कि इन आलोचकों
का मन संकीर्णता से भरा हुआ है। वह अधूरे पश्चिमी विज्ञान के
समक्ष भारतीय ज्ञान को अपदस्थ करने के पक्ष में न हो सके। फिर
भी वह ब्राह्म समाज की सभाओं में जाते रहे कितु उनका मन पूरी
तरह अशांत था।
नरेंद्र का मन संशय की दुनिया से मुक्ति पाने को बेचैन हो उठा।
अंततः उन्हें इस विवशता-भरी बेचैनी से मुक्ति मिली, विचारों
और कार्यो के लिए एक नया क्षेत्र मिला। उनका परिचय एक
युग-प्रतिभा से हुआ। उनकी अवस्था अद्गारह वर्ष की थी और वहविश्वविद्यालय की अपनी पहली परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।
उनके एक घनी मित्र सुरेंद्रनाथ मित्र के घर एक छोटा-सा उत्सव
था। इसी उत्सव में स्वामी रामकृष्ण परमहंस भी उपस्थित थे।
नरेंद्र ने एक मोहक घार्मिक पद गाया। इसी अवसर पर रामकृष्ण
परमहंस की तेज दृष्टि ने उन्हें देखा और अपना लिया। रामकृष्ण
ने नरेंद्र से दक्षिणेश्रर आकर भेंट करने के लिए कहा।
और एक दिन नरेंद्र दक्षिणेश्रर जा पहुँचे। स्वामी रामकृष्ण
परमहंस तो मानो उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उन्होंने बड़े प्रेम
से बातें कीं। कुछ देर संगीत और वार्तालाप चला। फिर स्वामी
रामकृष्ण नरेंद्र को एकांत में ले गए। स्नेह से नरेंद्र का हाथ
पकड़कर बोले, “इतने दिनों तक तू मुझे भूलकर कैसे रहा ? कबसे
मैं तेरे आने की प्रतीक्षा कर रहा हूं।' नरेंद्र खामोश! क्या कहें?
थोड़ी देर बाद रामकृष्ण विहल हो उठे। हाथ जोड़कर नरेंद्र के
सामने खड़े हो गए। कहने लगे, 'तुम सप्त ऋषि-मंडल के ऋषि
हो। नर के रूप में नारायण हो। तुमने जीवों के कल्याण के लिए
जन्म लिया है।
नरेंद्र को स्वामी रामकृष्ण की बातें पागलों की-सी लगी। लोग
परमहंस को महापुरफ़ष मानते थे। कहते थे कि उन्हें ईश्वर के
दर्शन हो चुके हैं। परमहंस माँ काली के बहुत बड़े भक्त थे। माँ
काली उन्हें सिद्ध थीं। पर नरेंद्र को परमहंस एक पागल पुजारी
जैसे लगे। उन्होंने परमहंस की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उस
दिन वह बिना कुछ कहे-सुने मठ से लौट आए। परंतु परमहंस
में कुछ अजीब आकर्षण था। तभी तो नरेंद्र कगी-कभी पागल
पुजारी के यहाँ पहुँच ही जाते थे। एक दिन नरेंद्र ने स्वामी
रामकृष्ण से प्रश्न किया, महाराज, क्या आपने ईश्वर के दर्शन
किए हैं?!

 रामकृष्ण बोले, “हाँ बेटा, मैंने ईश्वर के दर्शन किए हैं। तुम भी
ईश्वर को अपनी आँखों से देख सकते हो, पर इसके लिए तुम्हें मेरे
कहने के अनुसार कार्य करना होगा।'
नरेंद्र कुछ नहीं बोले। वह व्यक्ति की परीक्षा ले चुकने के बाद ही
निर्णय लेते थे। इसलिए उन्होंने परमहंस को गुरु नहीं बनाया और
वह दक्षिणेश्वर से लौट आए।

बहुत दिनों तक नरेंद्र परमहंस के पास नहीं गए। उघर परमहंस
नरेंद्र के लिए व्याकुल हो उठे। एक दिन उन्हें पता चला कि नरेंद्र
ब्राह्मसमाज में बैठे हैं। बस वह वहीं जा पहुंचे। ब्राह्मसमाजियों
ने रामकृष्ण का बड़ा अपमान किया। इससे नरेंद्र को बड़ा दुःख
हुआ। उस दिन से उन्होंने ब्राह्मसमाज में जाना छोड़ दिया। एक
प्रकार से उससे संबंध ही तोड़ लिया।
उन्हीं दिनों नरेंद्र के साथ एक विचित्र घटना घटी। एक दिन वह
दक्षिणेश्वर में बहुत-से भक्तों के साथ बैठे थे। स्वामी रामकृष्ण
भक्तों को कुछ बातें बता रहे थे। एकाएक स्वामीजी अपने आसन
से उठे। नरेंद्र के पास आकर उन्होंने उनके कंधे पर अपना एक
चरण रख दिया। नरेंद्र की दशा ही विचित्र हो गई। उन्हें लगा जैसे
सब-कुछ मिट गया है, अकेले वही एक रह गए हैं। घीरे-धीरे वह
स्वयं भी विलीन होने लगे। वह एकाएक चीख उठे, “आपने मेरा
यह क्या कर डाला? मेरे माता-पिता जो हैं।” परमहंस ने अपना
हाथ उनके हृदय पर रख दिया। नरेंद्र बिल्कुल ठीक हो गए। अब
उन्हें कोई शंका नहीं रह गई कि परमहंस साधारण मनुष्य नहीं हैं।
वह कोई तेजपुरफ़ष हैं। बस, उन्होंने मन-ही-मन स्वामी रामकृष्ण
को गुरु मान लिया।
तीन वर्ष के उपरांत विवेकानंद के समक्ष अभूतपूर्व मानसिक संकटउपस्थित हुआ। सन्‌ 884 के आरंभ में हृदयगति रफ़क जाने सेउनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता ने आमदनी से अधिक खर्च किया था, इसलिए घर की आशिक स्थिति अच्छी न थी। छह-सात प्राणियों का भरण-पोषण और ऊपर से ऋण का बोझ।उन्होंने नौकरी की खोज की, कितु उसमें अपमानजनक व्यवहारके अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं मिला। घोर निराशा की स्थिति में वेसंन्यास लेना चाहते थे, कितु रामकृष्ण परमहंस के समझाने पर उन्होंने अपना निश्चय बदल दिया।

 रामकृष्ण ने उनसे कहा, “यह मैं जानता हूँ कि तुम संसार में नहीं रह
सकते। पर जब तक मैं जीवित हूं, तब तक इसे न छोड़ो, इतना
ही मेरा अनुरोध है।'

एक दिन उन्होंने स्वामी रामकृष्ण से प्रार्थना की, 'मेरी माँ और
भाई-बहन बड़े आर्थिक कष्ट में हैं! आप काली माँ से उनके लिए
कुछ प्रार्थना कर दीजिए न!'

परमहंस बोले, 'मैंने कभी काली माँ से कुछ नहीं माँगा। और फिर,
तू तो काली माँ को मानता नहीं। फिर तेरे लिए वह किसी की
प्रार्थना क्‍यों स्वीकार करने नरेंद्र कुछ नहीं बोले। कुछ देर बाद
परमहंस ने कहा, “आज मंगलवार है। आज रात को तू खुद जाकर
माँ से मोगेगा वह तुझे मिलेगा। '

 नरेंद्र आधी रात के समय काली के मंदिर में पहुँचे। वहाँ वह अपने
घर के लिए सुख-शांति और घन माँगने गए थे। पर जगदंबा के
दर्शन करते ही ध्यान में ऐसे खोए कि सब-कुछ भूल गए। बार-
बार यही कहते रहे, 'माँ, विवेक दो, ज्ञान दो, भक्ति दो, वैराग्य
दा
मंदिर से लौटकर नेेंद्र दक्षिणेश्वर पहुंचे। स्वामी रामकृष्ण ने पूछा,
'क्या माँगा रे? तब नरेंद्र को ध्यान आया कि वह क्या माँगने गए
थे और क्या माँग बैठे! वह बोले, “मैं तो परिवार के लिए कुछ भी
नहीं माँग पाया। '
परमहंस ने बड़े स्नेह से कहा, तेरे भाग्य में सांसारिक सुख नहीं है।
तेरा जन्म मनुष्य-जाति के कल्याण के लिए हुआ है। इसके लिए
तुझे कष्ट भी उठाने होंगे। पर जा, तेरे परिवारवालों को सूखी रोटी
और मोटे वस्त्र की कभी कमी न होगी।
अगस्त, सन्‌ 886 में रामकृष्ण परमहंस देहगत रूप से संसार से
विदा हुए। मृत्यु से चार दिन पूर्व उन्होंने विवेकानंद को अपने
पास बुलाया और निर्देश दिया कि उन दोनों को अकेला छोड़
दिया जाए। स्नेहभरी दृष्टि से उन्होंने विवेकानंद को देखा और
समाधिस्थ हो गए। जब वह जागे तो उनकी आँखों में ऑसू भरे
हुए थे। गुरु ने विवेकानंद से कहा, “आज मैंने अपना सब-कुछ
तुम्हें दे दिया है और अब मैं निरा कंगाल हूं, जिसका अपना कुछ
नहीं है। इस शक्ति से तुम संसार का बहुत-सा हित कर सकोगे
और उसको पूरा करके ही वापस लौटोगे।'

रविवार, 5 अगस्त, 886 को स्वामी रामकृष्ण ने अंतिम समाधि
लगाई और शरीर छोड़ दिया। स्वामीजी के देहावसान के बाद
विवेकानंद के सामने यह प्रश्न उभरकर आया कि गुरु के द्वारा
दिए गए मंत्र को किस रूप में साकार किया जाए? जिस शक्ति ने
उन्हें प्रश्न दिए थे, उत्तर भी उसी ने दिए और फिर विवेकानंद के
जीवन का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। मन में सौंदर्य-बोध की
असीम आकांक्षा थी। एक बेचैनी ने उन्हें संपूर्ण भारत को स्वतः
समझने के लिए एक यात्री बना दिया। शरीर पर एक कोपीन,
हाथ में कमंडलु, यही स्वामी विवेकानंद की वेशभूषा थी। वे जहाँ
भी पहुँचते, लोग उनके आकर्षण में खिंचे चले आते। अलवर
के महाराज ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया।
जयपुर में उनका विशद सम्मान हुआ। खेतरी के महाराज उनके चरणों में लेट गए।
गुजरात के रेगिस्तान को उन्होंने पैदल पार किया। अहमदाबाद में
इस्लामी और जैन संस्कृति से उनका परिचय हुआ। मैसूर नरेश
उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए। दक्षिण के मंदिरों के अवलोकन से
भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी आस्था सबल हो उठी। नालंदा
और सारनाथ के भग स्तूपों ने महात्मा बुद्ध के प्रति उनके विश्वास को जाप्रत्‌ किया। आगरा में ताज की भव्यता
कर दिया। ने उन्हें विमोहित
जब स्वामी जी दक्षिण यात्र में थे, उन्हें समाचार मिला कि
शिकागो में विश्वघर्म सम्मेलन होनेवाला है। दक्षिण भारत के
लोग चाहते थे कि स्वामीजी वहाँ हिंदू-धर्म के प्रतिनिधि के रूप
में जाएं। उन लोगों ने पर्याप्त घन भी एकत्र किया, पर स्वामीजीने उसे स्वीकार नहीं किया और कहा कि जाना होगा तो सारी
करें।
व्यवस्था अपने आप हो जाएगी। आप चिंता न

अमरीका जाने से पूर्व स्वामीजी कन्याकुमारी

गए। वह बहुत

भूखे और थके हुए थे। उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि
किनारे से चट्टान तक जाने के लिए नौका में बैठ सकें। साहस
बटोरकर उन्होंने गहरे सागर में छलांग लगा दी। भूखा शरीर, सार्क
मछलियों और सागर का गहरा जल उनके मार्ग की बाधा न बन
सके। उन्होंने तैरकर मार्ग पूरा किया और चट्टान पर पहुँचकर गहन
साधना में लीन हो गए। यहाँ विवेकानंद पूर्ण बोध की अवस्था में
पहुंच गए। कन्याकुमारी में बैठकर ही उन्होंने अपने भावी कार्यक्रम
की रूपरेखा बनाई। निर्घन और दलितवर्ग के कष्टों ने उन्हें व्यग्र  दिया था। दूरस्थ देशों की यात्र करके भारतीय पहुँचाने की तीव्र इच्छा उनके मन में यहीं पर जाग्रत्य गौरव को वहाँ
ग्रत्‌ हुई।
स्वामीजी ने शिंकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में जाने का निश्चय
किया। यद्यपि उनके पास किसी भी प्रकार का निमंत्रण नहीं था,
कितु वह अपनी बात सम्मेलन में रखना चाहते थे। अपने गुरु
रामकृष्ण परमहंस की पत्नी से आशीष प्राप्त कर, हजारों निर्धन
व बेसहारा व्यक्तियों, मित्रें और शुभचिंतकों के अमित प्यार को
लेकर भारत की सांस्कृतिक विजय की घोषणा करने के लिए
उन्होंने आमई, 893 को बंबई से प्रस्थान किया।
अनेक बाधाओं को पार करते हुए स्वामीजी शिकागो पहुंचे। कितु
उनकी कठिनाइयों का अंत नहीं हुआ था। सबसे बड़ी कठिनाई
तो तब सामने आईं, जब उन्हें यह बताया गया कि घर्म-सम्मेलन
सितंबर में होगा। उनकी चिंता का कारण एक और भी था।
घर्म-सम्मेलन में बिना परिचय-पत्र के कोई भाग नहीं ले सकता
था। स्वामीजी को तो काई जानता भी नहीं था, फिर परिचय-
पत्र कैसे मिले? बोस्टन की यात्र करते समय उनका परिचय एक
वृद्ध महिला से हुआ। उसने प्रभावित होकर स्वामीजी को अपना
अतिथि बनाया। उसी के प्रयास से स्वामीजी को घर्म-सम्मेलन
का परिचय-पत्र प्राप्त हुआ।
शिकागो सम्मेलन के पहले दिन उन्हें सबसे अंत में बोलने का
अवसर दिया गया। सबसे अंत में उन्हें इस कारण रखा गया था
कि जनता के लिए वह कोई विशेष आकर्षण नहीं थे। उन्हें केवल
पाँच मिनट का समय दिया गया था, जिसमें उन्हें अपने विचार
रखने थे।

स्वामीजी ने अपना भाषण आरंभ किया। उन्होंने कहा, 'अमरीका
के मेरे भाइयो और बहनो!” उनके पहले वाक्य ने ही लोगों का
मन जीत लिया। उनसे पहले पाँच प्रतिनिधि बोल चुके थे। किसी
ने भी लोगों को प्यार से भाई-बहन नहीं कहा था। स्वामीजी की
वाणी ने जैसे जादू कर दिया। लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते रहे।
कई घंटे बीत गए और श्रोता रस के सागर में डूबे रहे।
सत्रह दिन तक चलनेवाले इस विश्वधर्म सम्मेलन में स्वामीजी
ने दस-बारह बार अपने विचार प्रकट किए। अखंड आस्था
से प्रत्येक बार नए तर्क देकर उन्होंने विश्वघर्म की अपनी उस
कल्पना का निरूपण किया, जो देशकाल से परे है। उन्होंने बर्बरों
की अंधी अनुरक्तिं से लेकर आधुनिक विज्ञान की विशालतम,
सृजनात्मक स्थापनाओं तक समस्त मानव-जाति के आस्था-
जगत्‌ को एकाकार कर दिया।
व्यावहारिक वेदांत के इस महान्‌ परिव्राजक ने शिकागो घर्म-
सम्मेलन पर अपने स्पष्ट प्रभाव अंकित किए। अमरीका के
समाचार-पत्रें में उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। “द न्यूयॉर्क
हेराल्ड' पत्र ने उनके संदर्भ में लिखा था: “धर्मों की संसद्‌ में सबसे
महान्‌ व्यक्ति विवेकानंद हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास
यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के
लिए धघर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खता की बात है।'
शिकागो की घर्म-संसद्‌ में भाषणकर्त्ता अपने लेख पढ़कर विचारों
को प्रस्तुत कर रहे थे, जबकि स्वामी विवेकानंद ही ऐसे व्यक्ति
थे, जिन्होंने बिना किसी पूर्व तैयारी के धाराप्रवाह अपने विचारों
को अभिव्यक्त किया। जहाँ कहीं भी वह गए, उन्होंने सिर्फ अपनी
मौजूदगी से ही नहीं, बल्कि जो कुछ कहा, उससे और अपने कहने
के ढंग से, एक हलचल मचा दी। एक बार इस हिंदू संन्यासी को
देख लेने के बाद उसे और उसके संदेश को भुला देना मुश्किल
था। अमरीका में विवेकानंद को “तूफानी हिंदू” कहा गया।
घर्म-सम्मेलन के समापन के बाद स्वामी विवेकानंद अमरीका में
एक वर्ष और रफ़्के। कई जगह उनके भाषण हुए। अनेक लोग

उनके शिष्य बने। सारे देश में स्वामीजी की ख्याति फैल गई।
इसी बीच लंदन से ई-टी- स्टर्ली के कई पत्र स्वामीजी को
मिल चुके थे। बहुत-से दूसरे लोगों के भी पत्र आए थे। सभी
ने एक ही इच्छा प्रकट की: 'स्वामीजी इंग्लैंड आएँ। वहाँ अपने
विचारों से लोगों का उपकार करें।” आखिर स्वामीजी ने इंग्लैंड
जाने का निश्चय कर लिया। स्वामीजी इंग्लैंड पहुँचे। जगह-जगह
उनके भाषण हुए। तहलका मच गया। लोग उन्हें “आधी पैदा
करनेवाला भारतीय” कहने लगे। इंग्लैंड में कुमारी मार्गरेट ई-
नोवल उनकी शिष्या बनीं। वह अंत तक स्वामीजी के संपर्क में
रहीं। बाद में मार्गरेट ही संसार में भगिनी निवेदिता के नाम से
जानी गईं। इंग्लैंड में स्वामीजी को बेहद सफलता मिली। इंग्लैंड
से स्वामीजी फ्रांस और जर्मनी गए। वहाँ भी वही सफलता, वही
स्वागत, वही आदर प्राप्त हुआ।
विवेकानंद की सफलता के कारण भारत में जोश उमड़ आया।
पराधीन भारतीयों का खोया हुआ आत्मविश्वास जैसे फिर से लौट
आया। अमरीका से कोलंबो पहुँचने पर उनका शानदार स्वागत
हुआ। भारत पहुँचने पर स्वामीजी का वीरोचित स्वागत किया
गया। देश-विदेश में इतनी सराहना पाकर भी स्वामीजी अपनी
राह से भटके नहीं। अधिक दिनों तक उन्होंने विश्राम भी नहीं
किया। एक बड़ा लक्ष्य उनके सामने था, पूरा करने के लिए। वह
नए उत्साह के साथ प्रचार-कार्य में जुट गए। स्वामीजी जहाँ-जहाँ
भी गए, लोगों ने हिंदुत्व का महान्‌ रक्षक” कहकर उनका सम्मान
किया
उन्होंने अनुभव किया कि भारत में रूढ़िवादिता और निर्धनता ने
अपनी जड़ें जमाई हुई हैं। इन्हें कर्म द्वारा ही दूर किया जा सकता
है। उनका विचार था कि मानव-जाति की सेवा के बिना कोई
धर्म पूरा नहीं है। राष्ट्र आपसे कर्म करने का आह्वान कर रहा है। उदासीन बैठकर राष्ट्र का हित संभव नहीं। इसलिए उन्होंने अपने
साथियों को व्यक्तिंगत मोक्ष से अधिक सामाजिक कल्याण के
लिए प्रेरित किया।
स्वामीजी जिस महान्‌ कार्य को संपन्‍न करना चाहते थे, उसके
लिए उन्होंने संगठन की आवश्यकता अनुभव की। परिणामतः
उन्होंने | मई, 897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस
संगठन का उद्देश्य जनता और देश की सेवा निर्धारित किया
गया। आज भी इस संस्था के सेवाघर्म में कोई प्रश्नचिह्न नहीं
लग सका है। देश की हर प्रकार की कठिनाइयों में, महामारी,
बाढ़ और भूचाल में भारत के कोने-कोने से रामकृष्ण मिशन के
अनुयायी वहाँ भी आ पहुंचते हैं और एकांत भाव से दीन-दुखियों
की सेवा करते हैं। देश के कोने-कोने में स्थित अस्पतालों,
स्कूलों और आश्रमों की एकनिष्ठ सेवा गुरु रामकृष्ण तथा शिष्य
विवेकानंद के पवित्र नामों का स्मरण कराती है।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना के लगभग दो वर्ष बाद स्वामी
विवेकानंद पुनः विदेश-यात्र पर गए और उन्होंने वहाँ की
रामकृष्ण की संस्थाओं की शाखाओं का निरीक्षण किया।
अमरीका के अतिरिक्त इस बार उन्होंने इंग्लैंड, फ्रांस, आस्ट्रिया,
बलकान राज्य, ग्रीस तथा मिस्र का भी भ्रमण किया। अपनी इस
यात्र से स्वामीजी । दिसंबर, 900 को भारत लौटे।
कठिन परिश्रम और विश्राम की कमी के कारण स्वामीजी का
शरीर निरंतर क्षीण होता जा रहा था। जीवन के अंतिम दो वर्षों
में से उनका अधिकांश समय कलकत्ता के बेलूड़ मठ में व्यतीत हुआ।
शुक्रवार, 4 जुलाई, 902 को वे अत्यधिक प्रसन्‍न और प्रफुल्ल
थे। ब्राह्म मुहूर्त में वे उठे। पूजाघर में गए। एकांत में ॥] बजे तक ध्यान किया। रफ़चिपूर्वक शिष्यों के साथ बैठकर भोजन किया।
उत्साह के साथ उनसे बात करते रहे। उन्होंने कहा, "मेरी यात्र
आरंभ हो चुकी है।' उनके महाप्रयाण के अंतिम क्षणों का चित्रण
रोमां रोलां ने इस प्रकार किया है: सात बजे मठ में आरती के लिए घंटी बजी। वह अपने कमरे में
चले गए और गंगा की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने उस छात्र को,
जो उनके साथ था, बाहर भेज दिया। कहा कि मेरे ध्यान में विध्न
नहीं होना चाहिए। पैंतालीस मिनट बाद उन्होंने उसे बुलाया। सब
खिड़कियाँ खुलवा दीं। भूमि पर चुपचाप बाईं करवट लेट रहे और
ऐसे ही निश्चल लेटे रहे। वह ध्यानमग्न प्रतीत होते थे। घंटे पहर
बाद उन्होंने करवट ली, गहरा नि:ध्वास छोड़ा। कुछ एक क्षण तक
मौन छाया रहा-पुतलियाँ पलकों के मध्य में स्थिर हो गई-एक
और गहरा नि:ःश्वास और फिर चिर मौन छा गया। '
केवल उनतालीस वर्ष की उम्र में स्वामी विवेकानंद परलोकवासी
हो गए, पर वह जो काम कर गए हैं, वह एक महान्‌ कर्मयोगी के
लिए ही संभव था।

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